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|रचनाकार=पाब्लो नेरूदा
|अनुवादक=रामकृष्ण पांडेय
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अनुवाद कर्म को कुछ लोग हेय दृष्टि से देखते हैं और कुछ लोग प्रशंसा के भाव से । मुझे लगता है कि अनुवाद करना एक सामाजिक कृत्य है, ठीक उसी तरह जैसे कविता-कहानी लिखना । जैसे असामाजिक आदमी रचनाकार नहीं हो सकता, वैसे ही जो लोग अनुवाद को हेय दृष्टि से देखते हैं, उनमें मुझे सामाजिकता का अभाव नज़र आता है । अनुवाद को लेकर एक और समस्या है, और वह यह है कि अनुवाद का अनुवाद होना चाहिए या नहीं । निश्चित रूप से मूल भाषा से अनुवाद करना हमेशा बेहतर होता है, पर अगर मूल भाषा के जानकार लोगों का अभाव हो तो फिर उपाय क्या है ? एक बात और है और वह है अनुवाद की मजबूरी, अगर आप मूल भाषा नहीं जानते हैं और अनुवाद में कोई रचना पढ़ रहे होते हैं और आपको यह लगता है कि वह रचना आपके लोगों के लिए एक ज़रूरी रचना है तो अनायास ही आपका मन उसका अनुवाद अपने लोगों के लिए करने या करवाने के लिए तत्पर हो जाएगा । नेरूदा की कविताओं का अनुवाद मैंने इसी मजबूरी में किया है और आम तौर पर जो भी अनुवाद किए हैं, वे इसी मानसिकता में किए हैं ।

नेरूदा सही माने में एक अंतरराष्ट्रीय कवि थे । उन्होंने अपने देश और समाज के आम आदमी और उसके संघर्षों से जिस तरह से अपने को जोड़ा और जिस तरह से उसकी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी, उसी ने उन्हें दुनिया भर को मुक्तिकामी जनता को प्रेरणा का स्रोत बना दिया । नेरूदा सारी दुनिया की संघर्षशील चेतना का अपनी कविताओं में प्रतिनिधित्व करते हैं, इसीलिए उनकी कविताएँ उनके लिए और हम सबके लिए ज़रूरी हैं । नेरूदा का असली नाम नेफ़्ताली रिकार्डो रिएस बसोल्टो था । पाब्लो नेरूदा उनका साहित्यिक नाम है । उनका जन्म 1904 में चिले में हुआ था । एक कवि के रूप में उनके महत्व को हम इस बात से भी समझ सकते हैं कि 1964 में जब सार्त्र को नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो उन्होंने उसे ठुकरा दिया और इसके लिए जो कारण बताए, उनमें से एक यह था कि यह पुरस्कार नेरूदा को मिलना चाहिए था । बाद में नेरूदा को1971 में यह पुरस्कार मिला । नेरूदा स्वभाव से यायावर थे । दो बार भारत भी आए थे । भारत और दक्षिण एशिया के बारे में उन्होंने कविताएँ भी लिखीं । प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने नेरूदा को सच्चा लोकहृदय कवि कहा है और लिखा है कि उन्होंने “कविता को सही मायनों लोकहृदय और लोककण्ठ में प्रतिष्ठित किया”। 1973 में नेरूदा निधन हो गया ।
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