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{{KKRachna
|रचनाकार= बबली गुज्जर
}}
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कॉन्वेंट में भाई को दिला एडमिशन
दे दिया उसे नए नए डेस्क का तोहफा,
रंग-बिरंगी, कहानियाँ सुनाती दीवारें,
नया बस्ता किताबें, ठंडा साफ़ पानी
और ढेर सारे ख़्वाब ला भर दिए उसकी जेबों में
जितनी ज्यादा जेबें, उतने ज्यादा सपने
मेरे पास कोई जेब न थी
तो सपनें भी न मिले
चुन लिया गया मेरे लिए सरकारी टाट
पचासी बालकों की क्लास में
सबसे पीछे बैठी
न टेंट की छाँव मिलती
न नीम का साया पड़ता
बेकदरी से भूरे हुए बालों को
समेटती रहती आधा बखत
स्कर्ट की तुरपाई खोल
काम चलेगा एक और बरस
हिंदी के कायदे पढ़े, अंग्रेजी से कतराती
हिंदी माँ और अंग्रेजी थी बाबा- सी
तो बाबा से नज़रें चुरा माँ की ओट आ जाती
गणित से घबराती थी पर
पर जमा घटा के निकालती हकों का उत्तर
वक्त के साथ भारी होता गया
भाई का बस्ता,
और मेरा मन!
उसने परकार से बनाया गोल वृत्त
मैंने बेलन से छाप दी पृथ्वी
खिलाया सबको, खुद रख बरत
गोल रोटी, गोल चूड़ी, गोल चंदा
और गोल गोल पहिए बैलगाड़ी के
बिठा जिसमें भेज दी ससुराल
दुनिया गोल है, और मन भी
भूली नहीं एक पल को भी
ऐसी बातें याद रखने को बादाम की नहीं
गुनगुनी हँसी
और अग्नि- सी दहकती
आँखों की जरूरत होती है
चाहिए थी कुछ जेबें,
सपने रखने की खातिर
छोटे-छोटे सपने,
तवे से उतरती पहली रोटी का सपना
बाबा के स्कूटर की अगली सीट का सपना
उत्तराधिकारी के संग तनकर खड़े हुए दादा की
तस्वीर में उनके बगल में खड़े होने का सपना
दादी की थैली से निकले नोट का सपना
पर हाथ लगी हमेशा
काली परत चढ़ी हुई कुछ
पुराने समय की बन्द हुई
आधे- अधूरे सपनों वाली ख़रीज
</poem>
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|रचनाकार= बबली गुज्जर
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कॉन्वेंट में भाई को दिला एडमिशन
दे दिया उसे नए नए डेस्क का तोहफा,
रंग-बिरंगी, कहानियाँ सुनाती दीवारें,
नया बस्ता किताबें, ठंडा साफ़ पानी
और ढेर सारे ख़्वाब ला भर दिए उसकी जेबों में
जितनी ज्यादा जेबें, उतने ज्यादा सपने
मेरे पास कोई जेब न थी
तो सपनें भी न मिले
चुन लिया गया मेरे लिए सरकारी टाट
पचासी बालकों की क्लास में
सबसे पीछे बैठी
न टेंट की छाँव मिलती
न नीम का साया पड़ता
बेकदरी से भूरे हुए बालों को
समेटती रहती आधा बखत
स्कर्ट की तुरपाई खोल
काम चलेगा एक और बरस
हिंदी के कायदे पढ़े, अंग्रेजी से कतराती
हिंदी माँ और अंग्रेजी थी बाबा- सी
तो बाबा से नज़रें चुरा माँ की ओट आ जाती
गणित से घबराती थी पर
पर जमा घटा के निकालती हकों का उत्तर
वक्त के साथ भारी होता गया
भाई का बस्ता,
और मेरा मन!
उसने परकार से बनाया गोल वृत्त
मैंने बेलन से छाप दी पृथ्वी
खिलाया सबको, खुद रख बरत
गोल रोटी, गोल चूड़ी, गोल चंदा
और गोल गोल पहिए बैलगाड़ी के
बिठा जिसमें भेज दी ससुराल
दुनिया गोल है, और मन भी
भूली नहीं एक पल को भी
ऐसी बातें याद रखने को बादाम की नहीं
गुनगुनी हँसी
और अग्नि- सी दहकती
आँखों की जरूरत होती है
चाहिए थी कुछ जेबें,
सपने रखने की खातिर
छोटे-छोटे सपने,
तवे से उतरती पहली रोटी का सपना
बाबा के स्कूटर की अगली सीट का सपना
उत्तराधिकारी के संग तनकर खड़े हुए दादा की
तस्वीर में उनके बगल में खड़े होने का सपना
दादी की थैली से निकले नोट का सपना
पर हाथ लगी हमेशा
काली परत चढ़ी हुई कुछ
पुराने समय की बन्द हुई
आधे- अधूरे सपनों वाली ख़रीज
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