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मिट्टी / संतोष अलेक्स

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<poem>
गाँव से शहर पहुँचने पर
मिट्टी बदल जाती है
गमलों में सीमित है
शहर की मिट्टी
गाँव की मिट्टी
चिपक जाती है
मेरे हाथों एवं पांवों में

मिट्टी को धोने पर भी
उसकी सोंधी गंध रह जाती है
मिट्टी सांस है मेरी
ऊर्जा है मेरी
पहचान है मेरी

अपने पाँव तले की मिट्टी को
अरसे से बचाए रखा है मैंने
मिट्टी की न कोई जात है न धर्म
मैं, तुम
वह, वे
जो कोई भी गिरे
वह थाम लेती है
जैसे माँ बच्‍चे को थामती है

</poem>
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