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पत्थर के आँसू-2 / कविता भट्ट

16 bytes removed, 07:30, 3 अप्रैल 2022
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चरणों पर मेरे बहुत मस्तक झुक रहे थे
गर्वित, विस्मित था, मुझे सब पूज रहे थे
परन्तु, सब याचक थे यह क्या?
भूखा अधनंगा शैशव कभी आया
रो कर रोकर रोटी का टुकड़ा मांग माँग रहा था क्रन्दन करता यौवन आया झुका माथा
मुझसे मांग माँग रहा था जीविकोपार्जन
आया अपनी सन्तान से एक बूढ़ा शोषित
फिर भी मांग माँग रहा था उनके लिए धन
और अपने लिए थोड़ा सा जीवन
तभी एक स्त्री आई बिलखती
दौड़ती हुई मुझे धिक्कारती तुम्हारा है कैसा है प्रभु यह संसार मैं सशक्त तथापि दीन-हीन और लाचार
तुम से निर्मित पुरुष द्वारा हे! पाषाण-परमेश्वर निशि-दिवस मेरा यह कैसा घृणित तिरस्कार
न मेरा अपना शैशव था कोई
अपने लिए निर्लोभ, नहीं कुछ सँजोया
तेरे समक्ष अधरों ने नित पिता, भाई, बेटा,
और मेरा पति-परमेश्वर ही बुदबुदाया
और मेरा और मेरी स्त्री संतान का शोषण,
डोलता अस्तित्व, चुनौती-भरा कंटक-जीवन
कर सकोगे मुझ पर उपकार तुम क्या
राम तूने स्वयं ही किया शोषण पत्नी का
मेरे आँसू से तुझे होगी पीड़ा क्या?
जब जानकी को तूने फूट-फूट रुलाया
परन्तु रोया बहुत मेरा भी मन
शंकित लज्जित था अपने ईश्वर होने पर
और अनुभव ही नहीं कर पाया
कब बह निकले मुझ मूक-बधिर ‘पत्थर के आँसू’
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