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|रचनाकार=विंदा करंदीकर
|अनुवादक=रेखा देशपाण्डे
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<poem>
हे आइंस्टीन !
तुम हो
चैतन्य सृष्टि के,
हमारे जगत में
एकमेव उपासक !
तुम्हारी दृष्टि
टिकी हुई है
अन्तिम सत्य पर,
है तुम्हारी ही
अदृष्ट को
स्पष्ट करनेवाली
प्रगाढ़ प्रज्ञा —
जिसने कराया
मानव मन को
'सोऽहम्' से साक्षात्कार !

हे आइंस्टीन !
दो युद्धों की
पगली आँधियाँ
आ धमकीं
तुम्हारी खिड़की पर,
हिली नहीं
तुम्हारी ज्योति !
और इसीलिए
उसके धुएँ का
काला काजल
आँखों में सजाकर
दिशाएँ हुईं
धन्य-धन्य !

हे आइंस्टीन !
तुम्हारी क़लम से
समाज - पक्षिणी
देती है अण्डे
विज्ञान-विश्व के !
— जिन्हें सेने के लिए
चाहिए उसमें
सृजनशील संयम;
— जिन्हें सेने के लिए
उसके पंखों में
चाहिए गरमाहट
मानव प्रेम की !

हे आइंस्टीन !
तुम्हीं सुनाना
संशयग्रस्त जगत को
अन्तिम सत्य,
जिसके आलोक में
काल - पुरुष
आकाश-गंगा का
पहनकर पट्टा
मुसाहिब की भाँति
आएगा पुकारते हुए
अटल भविष्य !

हे आइंस्टीन !
'कौन', 'क्या'
'कैसे', 'कहाँ',
'कब', 'कितना',
'क्यों’ —
ये सारे सात पिशाच
मेरी गर्दन पर !
सूर्य माला का
जाप करते हुए
अश्वत्थ की
परिक्रमा करने वाले
हे रहस्यमय महन्त !
बोलो, कब
गाड़ दोगे इन्हें
विज्ञान गणित के
एक ही महावाक्य में ?

'''मराठी भाषा से अनुवाद : रेखा देशपाण्डे'''
</poem>
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