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राधे-राधे ! / मनोज जैन 'मधुर'

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<poem>
उतरी, चढ़ी
रात की दारू
उठ बैठा
मुँह खोल रहा है।
राधे - राधे बोल रहा है ।

कहता है जी
गौ - दर्शन से
सारे काज सम्हर जाते हैं

कोष पाप का
खाली होता
मंगल के अवसर आते हैं ।

लगा ठेलने
अपनी - अपनी
चिन्तन सारा गोल रहा है ।
राधे - राधे बोल रहा है ।

लूट - पाट की
बना योजना
वंशी वाले की जय बोले ।

धीरे-धीरे
दाँव - पेंच की
ख़ुद ही अपनी परतें खोले ।

पाखण्डी छल
छद्म समय के
रस में विष को घोल रहा है ।
राधे - राधे बोल रहा है ।

लाज रखेगा
डमरू वाला
अपनी नैया पार करेगा ।

स्थिति यथा
रहे पर भोला
भण्डारी भण्डार भरेगा ।

हर-हर गङ्गे
बोल-बोल कर
ज़बरन पानी ढोल रहा है ।
राधे - राधे बोल रहा है ।

आगे लक्षमी
मध्य शारदा
और मूल में है गोविन्दा ।

करतल दर्शन
करता उठकर
फिर खाता है मुर्गा ज़िन्दा।

खुलकर पूरा
भीतर साला
बाहर हमें टटोल रहा है ।
राधे - राधे बोल रहा है ।
</poem>
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