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<poem>
सुनो! मंत्रमुग्ध मीत मेरे;
आज शिखर पर खड़े होकर
झाँकने का मन है-
अश्रुताल के शान्त जल की
असीम गहनता युक्त तलहटी में
जिसके रसातल में
समाधि बना दी गई
मेरे हृदय की खनकती हँसी की
और उसको सजाया गया
गहन वेदना के पुष्पगुच्छों से।
किसी भी तथाकथित सम्बन्ध की
उस मरुथल हुई भूमि पर
न तो उद्गम होता है,
संवेदनाओं की किसी नदी का
न ही झरने बहते हैं
भावों के कल-कल गुनगुनाते
फिर भी न जाने क्यों
विचरती हूँ - प्रायः
स्मृतियों की पैंजनियाँ पहनकर
बजाती हूँ तर्कों के घुँघरू
रचती हूँ आदर्शों के गीत
खोजती हूँ अब भी
कुछ सपने; जिनमें -
नदियों का शांत स्वर है
झरनों का संगीत है।
मरुथल में ऐसे सपने
अपराध तो नहीं;
किन्तु भूल तो अवश्य है।
अब भी मोहपाश नामक साथी ने
मेरी उँगली छोड़ी नहीं।
और मैं...उसकी चिरसंगिनी बन
न जाने क्यों?
विचरती हूँ -
स्मृतियों की पैंजनियाँ पहनकर।
सुनो! मंत्रमुग्ध मीत मेरे...
</poem>