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बुलडोजर / राजेश जोशी

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तुमने कभी कोई बुलडोजर देखा है
वो बिल्कुल एक सनकी शासक के दिमाग़ की तरह होता है
आगा पीछा कुछ नहीं सोचता,
उसे बस एक हुक़्म की ज़रूरत होती है
और वह तोड़-फोड़ शुरू कर देता है

सनकी शासक कल्पना में कुचलता है
जैसे विरोध में उठ रही आवाज़ को
बुलडोजर भी साबुत नहीं छोड़ता किसी भी चीज़ को
सनकी शासक बताना भूल जाता है
कि बुलडोजर को क्या तोड़ना है
और कब रूक जाना है

सनकी शासक ख़्वाबों की दुनिया से जब बाहर आता है
मुल्क़ मलबे का ठेर बन चुका होता है
सनकी शासक मलबे के ढेर पर खड़े होने की कोशिश करता है
पर उसकी रीढ़ टूट चुकी है
वह ज़ोर-ज़ोर से हँसना चाहता है
पर बुलडोजर ने तोड़ डाले है उसके भी सारे दाँत
बुलडोजर किसी को नहीं पहचानता है

बुलडोजर सब कुछ तोड़कर
बगल में खड़ा है
अगले आदेश के लिए !

रचनाकाल : 20 अप्रैल 2022
</poem>
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