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बुलडोजर / विजय कुमार

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<poem>
बस्तियाँ ही अवैध नहीं
उनकी तो सांसें भी अवैध थीं
हंसना और रोना
भूख और प्यास
मिट जाने से पहले
थोड़ी सी छत, थोड़ी सी हवा
भोर की उजास और घनी रातें
ईंट की इन मामूली दीवारों के पीछे
यहीं रही होगी आदम और हव्वा की कोई जन्नत
बच्चों की किलकारी
शक्तिहीन बूढ़ों की दुआएँ
सब अवैध था सब कुछ

विशाल भुजाओं वाली
राक्षसी मशीनों
के भीमकाय जबड़ों से
अब लटक रहे हैं
उनकी
याचनाओं के कुछ बचे-खुचे लत्तर

इस पृथ्वी पर ज़मीन का कौन सा टुकड़ा है
कि अब वहाँ बचाकर ले जाएँ वे अपनी लाज
कौन सा रिक्त-स्थान भरें
कोर्ट-याचिकाओं में
कोई जगह नहीं मनुष्य-चिह्नों के लिए
दर्द सिर्फ शायरी में
और
ग्राउण्ड- ज़ीरो पर केवल एक ‘एक्शन प्लान’
एक उन्माद
कि कुचल कर रख दिया जाएगा सब कुछ

वे अपने बिख़रे हुए मलबे में
खोजते हैं अपने कुछ पुराने यक़ीन
कोई ज़ंग खाई हुई आस
अपना रहवास
इस दुनिया में अपने होने के सबसे सरल रहस्य

घटित के बाद
अब वहाँ, बस, एक ख़ालीपन
उसे भर नहीं सकता कोई
कोई चीत्कार
शोक, आघात, विलाप, ख़ामोशी
बचे हैं केवल तमतमाए चेहरे

ताक़त के निज़ाम में
सब बिसरा दिया जाएगा
सब लुप्त हो जाएगा
सबकुछ
उजड़ना टूटना बिखरना ध्वस्त होना

पेड़ काट डाले गए
एक बेरहम दुनिया में
चिड़ियाएँ अशान्त
वे अपनी स्मृतियाँ सञ्जोए
वे अपनी फ़रियाद लिए
मण्डराती रहती हैं
ज़मीन पर गिरे हुए घोंसलों के इर्द-गिर्द

कोई भरपाई नहीं
यह हाहाकार भी उनका डूब जाता है
पुलिस वैन के चीख़ते हुए सायरनों में ।
</poem>
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