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{{KKRachna
|रचनाकार=कुँअर बेचैन
}}
माँ की साँस
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
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|रचनाकार=कुँअर बेचैन
}}
माँ की साँस
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
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