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{{KKRachna
| रचनाकार= द्विजेन्द्र 'द्विज'
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है

‘जयद्रथ’ हो या ‘दुर्योधन’हो सबसे उसका नाता है
अब अपना गाँडीव उठाते ‘अर्जुन’ भी घबराता है

जब सन्नाटों का कोलाहल इक हद से बढ़ जाता है
तब कोई दीवाना शायर ग़ज़लें बुन कर लाता है

दावानल में नए दौर के पंछी ने यह सोच लिया
अब जलते पेड़ों की शाख़ों से अपना क्या नाता है


प्रश्न युगों से केवल यह है हँसती -गाती धरती पर
सन्नाटे के साँपों को रह-रह कर कौन बुलाता है

सब कुछ जाने ‘ब्रह्मा’ किस मुँह पीछे इन कंकालों से
इस धरती पर शिव ताण्डव-सा डमरू कौन बजाता है

‘द्विज’! वो कोमल पंख हैं डरते अब इक बाज के साये से
जिन पंखों से आस का पंछी सपनों को सहलाता है।
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