भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<poem>
डाल काट दी, नीड गिरायाऐसा करके, क्या है पाया।उड़े पखेरू, गुंजित अम्बरभरा अचानक, दारुण वह स्वरग्रंथ जलाए, लाज न आईखुद ही घर को, आग लगाई।मंदिर की थी, पावन प्रतिमाप्राण प्रिय रहा, जीवन- गरिमाउस पर लांछन? धिक्कार तुम्हेंउनसे भी था ना प्यार तुम्हें ।जिनके हरपल,सुर पग चूमेंभयभीत असुर, पास न आएँउनसे न रहा, प्यार तुम्हें तोउसके मन की, पीड़ा पूछोमरता पलपल, व्रीड़ा पूछोस्वर्ग जलाकर, क्या पाया हैशेष राख ही, सरमाया है।सदैव तुमने, अभिशाप दियायह बहुत बड़ा, है पाप किया ।वैरी तक को, दुख ना देताकभी किसी से, कुछ ना लेताउसको तुमने,सदा सतायाचुप क्यों? बोलो,क्या है पाया!
</poem>