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Kavita Kosh से
इस राह का दिख रहा है, वो आख़िरी नाक़ा
अकेला हूँ मैं यहाँ औ’ ढोंग में है सब कुछ डूबा
रंगभूमि नहीं है कोई ये, — ज़िन्दगी है अजूबा
1946