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ग़ज़ल 10-12 / विज्ञान व्रत

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<Poem>
'''10'''
जिस्म जिसका है बयाँ मुझमें
कौन है ये बेज़बाँ मुझमें
 
जो रहा होकर कभी मेरा
वो मिलेगा अब कहाँ मुझमें
 
था सितारों से कभी रौशन
क्या हुआ वो आसमाँ मुझमें
 
जो बनाया था कभी तूने
अब नहीं वो आशियाँ मुझमें
 
डूबने का शौक़ था तुमको
लो हुआ दरिया रवाँ मुझमें
'''11'''
याद उसे यदि रखता और
होती मेरी भाषा और
 
था उसका कुछ मंशा और
लेकिन मैंने समझा और
 
गर वो रहता ज़िन्दा और
फिर मैं कुछ दिन मरता और
 
हम दोनों की मंज़िल एक
लेकिन मेरा रस्ता और
 
कन्फ़्यूजन कुछ और बढ़ा
ज्यों - ज्यों उसको समझा और
'''12'''
आप थे मुझमें निहाँ
ज़िन्दगी थी कहकशाँ
 
मिट चुके जिसके निशाँ
था यहीं वो आशियाँ
 
क्यों ज़माने को सुनूँ
आपको सुनकर मियाँ
 
बात उसकी भी सुनो
बन्द है जिसकी ज़बाँ
 
रूह की पड़ताल में
जिस्म आया दरमियाँ
</poem>