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<poem>
क्षितिज की ओर
धीरे-धीरे सिमटती - शांत होती
थकी, मलिन सुबह की अमिट प्यास
लौटते खग, पिपीलिका, मृग सत्वर
निज गृह की ओर, किन्तु मैं लौटूंगा नहीं।
लौटूंगा ही नहीं तो जाऊंगा किधर
किस ओर?
स्मृतियों से लौटना
बिल्कुल लौटना नहीं होता
मुँह खाये रेत, पेट के बल उलटे पड़े
कच्छपों की तरह
अनवरत खोजता तुम्हें
उठूंगा ! उट्ठूंगा तो बारुंगा दीया
तुम्हें देखने के लिए...
</poem>