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{{KKRachna
|रचनाकार=मृत्युंजय कुमार सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मेरी आह
का विरल होता छोर
मेरे हृदय तक
शून्य-सा लचीला
एक तनी हुयी आस छोड़ जाता है,
ना तो जिसका होता है क्षय
और ना ही विलय
शब्द-भर, स्वर-भर आह
विसरित हो स्वरों के जगत में
खो जाती है,
रह जाता है
आस से तना
खाली हृदय
जिसका क्षय भी होता है
और विलय भी।
</poem>
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|रचनाकार=मृत्युंजय कुमार सिंह
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मेरी आह
का विरल होता छोर
मेरे हृदय तक
शून्य-सा लचीला
एक तनी हुयी आस छोड़ जाता है,
ना तो जिसका होता है क्षय
और ना ही विलय
शब्द-भर, स्वर-भर आह
विसरित हो स्वरों के जगत में
खो जाती है,
रह जाता है
आस से तना
खाली हृदय
जिसका क्षय भी होता है
और विलय भी।
</poem>