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|रचनाकार=कृष्णकुमार ‘आशु’
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<poem>'''(1)'''
चस्तो रैयो सदीव
करण नै च्यानणो.
थारै जीवण में
आखी उमर
ढोंवतो रैयो अंधारो
खुद रै मांयनै।
रीतग्यो तेल, ढळगी उमर
पण बुझी कोनी
अजै ई चसै है
आस री ऐक लौ
थारै-म्हारै हेत री।

'''(2)'''
थूं आज ई
रखणो नीं भूलै
आथण नै घर आगै
तेल रो दीवळो
आवूंगा जिकै दिन
च्यानणी मिलै म्हनै रात।
कीकर रोकैलो
अंधारो म्हारी राह
चसै है जद
थारै हियै में
आस री ऐक लौ।

'''(3)'''
पून अटावरी ही
आभो ई होय रैयो रीसाणो
पण
आपरै हाथां रो परस पा'र
जीवण नै ओट मिलगी
अर बुझती लौ री आस खिलगी।
हियै री बाती नै
मिलग्यो हेत रो तेल
अर होयग्यो
पूरब रो पच्छम सूं मेल।
'''
(4)'''
थूं चसायो दीवळो
म्हूं दीन्ही ओट
म्हारी हथैळियां री
अर
होयग्यो उजास च्यारूंकानी
हेत रो म्हारै।</poem>
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