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{{KKRachna
|रचनाकार=शशिकान्त गीते
|अनुवादक=
|संग्रह=मृगजल के गुंतारे / शशिकान्त गीते
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
गुमसुम क्यों बैठे हो
मन कोरी लाग लिए,
बाँसों के वन गाते
अन्तर में आग लिए ।
अन्तर में आग, चपल
दृष्टि हो काग - सी
ज़िन्दगी रहे न महज
सागर के झाग - सी
संयम हो बँध नहीं
दामन में दाग लिए ।
मौसम कब रोक सका
कोयल का कूकना
ऋतुओं की सीख नहीं
अपने से चूकना
नदियाँ भी राह तकें
मधुर- मधुर राग लिए ।
उतनी ही सृष्टि नहीं
जितनी हम सोच रहे
स्लेट लिखे शब्दों को
पोते से पोंछ रहे
हल करते जीवन, ऋण,
जोड़, गुणा, भाग लिए ।
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=मृगजल के गुंतारे / शशिकान्त गीते
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गुमसुम क्यों बैठे हो
मन कोरी लाग लिए,
बाँसों के वन गाते
अन्तर में आग लिए ।
अन्तर में आग, चपल
दृष्टि हो काग - सी
ज़िन्दगी रहे न महज
सागर के झाग - सी
संयम हो बँध नहीं
दामन में दाग लिए ।
मौसम कब रोक सका
कोयल का कूकना
ऋतुओं की सीख नहीं
अपने से चूकना
नदियाँ भी राह तकें
मधुर- मधुर राग लिए ।
उतनी ही सृष्टि नहीं
जितनी हम सोच रहे
स्लेट लिखे शब्दों को
पोते से पोंछ रहे
हल करते जीवन, ऋण,
जोड़, गुणा, भाग लिए ।
</poem>