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{{KKRachna
|रचनाकार=अन्द्रेय वज़निसेंस्की
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मत कर परेशान, ओ पेड़, मनुष्य को
न जला अलाव उसके भीतर।
पहले ही उसके भीतर मची है उथल-पुथल,
ओ ईश्वर,
किसी को न देना ऐसी किस्मत!
ओ पंछी! न मार तू मनुष्य को इतना
अभी तो गोली चली भी नहीं।
चला आ तू चक्कर लगाता
धरती के और अधिक पास।
अधिक पैना होता है
वह जो हमें अभी मालूम नहीं।
अनुभवहीन है यह दो पाँवों वाला दोस्त
और तुम, गिलहरियों और चूहो!
हटा दो रास्ते से जाल और फंदे
कहीं चोट न खा जाये उसकी आत्मा!
ओ अतीत, इतना न जता तू अपना अधिकार
उसका नहीं इसमें कोई दोष।
ओ खुले उपवन, उसके घर से
इतनी ईर्ष्या न कर!
घनी छाया फैलाये तू खड़ा
भौंहों तक गिराये बाल -
उसे पहले ही पिला दिया गया है जहर
तू तो कम-से-कम उसे न मार!
दे देना उसे रविवारों में
अपने सब बेर,
सब कुकुरमुत्ते।
फिर दे देना उसे मुक्ति
और मुक्ति से ही मार डालना उसे।
</poem>
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मत कर परेशान, ओ पेड़, मनुष्य को
न जला अलाव उसके भीतर।
पहले ही उसके भीतर मची है उथल-पुथल,
ओ ईश्वर,
किसी को न देना ऐसी किस्मत!
ओ पंछी! न मार तू मनुष्य को इतना
अभी तो गोली चली भी नहीं।
चला आ तू चक्कर लगाता
धरती के और अधिक पास।
अधिक पैना होता है
वह जो हमें अभी मालूम नहीं।
अनुभवहीन है यह दो पाँवों वाला दोस्त
और तुम, गिलहरियों और चूहो!
हटा दो रास्ते से जाल और फंदे
कहीं चोट न खा जाये उसकी आत्मा!
ओ अतीत, इतना न जता तू अपना अधिकार
उसका नहीं इसमें कोई दोष।
ओ खुले उपवन, उसके घर से
इतनी ईर्ष्या न कर!
घनी छाया फैलाये तू खड़ा
भौंहों तक गिराये बाल -
उसे पहले ही पिला दिया गया है जहर
तू तो कम-से-कम उसे न मार!
दे देना उसे रविवारों में
अपने सब बेर,
सब कुकुरमुत्ते।
फिर दे देना उसे मुक्ति
और मुक्ति से ही मार डालना उसे।
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