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|रचनाकार=वास्को पोपा
|अनुवादक=राजेश चन्द्र
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<poem>
हर कोई छील लेता है अपनी ही चमड़ी को
हर कोई अनावृत करता है अपने नक्षत्र को
जिसने देखा नहीं कभी किसी रात को

हर कोई पूर लेता है अपनी चमड़ी को चट्टानों से
और ठिठोली करता है उनके साथ
रोशनी में, अपने ही सितारों की

जो नहीं ठहरता सुबह होने तक
पलकें नहीं झपकाता, गिरता नहीं
वह पा लेता है अपनी चमड़ी को फिर से

(यह खेल शायद ही कभी खेला गया हो)

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद – राजेश चन्द्र'''
</poem>
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