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चींटी / शंख घोष / शेष अमित

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<poem>
री चींटी !
तेरे पंख निकले
अब सहन नहीं होता ।

पंक्तिबद्ध पंक्तिबद्ध पंक्तिबद्ध चेहरे
अब सहन नहीं होता,
अलमारी, प्लेट, बरामदा, किताब, उदास मेज़पोश,
इस गहन रात में छीन लोगी क्या मेरी शैय्या भी ?

चींटी !
घर कहाँ है री तेरा ?
उड़ जा वहीं पंख लगा,

नहीं तो, कूद पड़ नदी में,
या जलाकर आग बड़ी कोई, नाच घेरकर,
पंख निकले, निकले पंख तेरे,

री चींटी !
अब सहन नहीं होता ।

'''मूल बांगला से अनुवाद : शेष अमित'''
</poem>
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