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|रचनाकार= दीप्ति पाण्डेय
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|संग्रह=
}}
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<poem>
बर्फीले तूफानों में भी चूल्हे ठन्डे नहीं हुए
लकड़ियाँ, काठ कोठार में भरी रहीं
गडरियों की भेड़ें बनी रहीं श्रेष्ठ अनुयायी
और अपने मालिक द्वारा तय रेख पर बढ़ती रहीं अनजान राह
लेकिन मालिक जो गढ़ता रहा अपना रास्ता
बर्फीली चट्टानों के बीच बिना किसी अनुसरण के
उसकी कुल जमा आमदनी हर दिन चूल्हे को आग देना था
एक दिन काठ कोठर में रखी महीनों से प्यासी लकड़ियाँ
दिखती हैं भीगी, सीली - सीली
ताप और हिमांक में साँठ- गाँ ठ देखी जाती है
गडरिए के चूल्हे को आग की जगह धुआँ मिलता है
भेड़ें,बर्फीली चट्टान पर चढ़ते हुए
गीली लकड़ियाँ चूल्हे से धुआँ उलीचते हुए थक चुकी हैं
और भूख से हारा गड़रिया
जीवन के ताप से मुक्त हो ठंडा पड़ चुका है
सभा में लोग कहते हैं - मृतक की आत्मा को शान्ति मिले
</poem>
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|रचनाकार= दीप्ति पाण्डेय
|अनुवादक=
|संग्रह=
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बर्फीले तूफानों में भी चूल्हे ठन्डे नहीं हुए
लकड़ियाँ, काठ कोठार में भरी रहीं
गडरियों की भेड़ें बनी रहीं श्रेष्ठ अनुयायी
और अपने मालिक द्वारा तय रेख पर बढ़ती रहीं अनजान राह
लेकिन मालिक जो गढ़ता रहा अपना रास्ता
बर्फीली चट्टानों के बीच बिना किसी अनुसरण के
उसकी कुल जमा आमदनी हर दिन चूल्हे को आग देना था
एक दिन काठ कोठर में रखी महीनों से प्यासी लकड़ियाँ
दिखती हैं भीगी, सीली - सीली
ताप और हिमांक में साँठ- गाँ ठ देखी जाती है
गडरिए के चूल्हे को आग की जगह धुआँ मिलता है
भेड़ें,बर्फीली चट्टान पर चढ़ते हुए
गीली लकड़ियाँ चूल्हे से धुआँ उलीचते हुए थक चुकी हैं
और भूख से हारा गड़रिया
जीवन के ताप से मुक्त हो ठंडा पड़ चुका है
सभा में लोग कहते हैं - मृतक की आत्मा को शान्ति मिले
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