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{{KKRachna
|रचनाकार=सांत्वना श्रीकांत
}}
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<poem>
मेरे माथे पर तुम्हें
सहस्त्र आकशगंगाओं का
विस्तार मिलेगा
महसूस करना तुम
होंठो पर हज़ारों ज्वार
अपने चुम्बन की शीतलता से
रोक देना उन्हें वहीं।
अनेक थपेड़ों के बाद बचा अखंडित मेरा शरीर
जब बिखर जाएगा तुम्हारे आलिंगन में
स्पर्श से मोक्ष देना उसे,
राम की ही भाँति
जैसे उन्होंने आहिल्या-पगधूरि
को दिया था।
तुम मल लेना
मेरे पार्थिव शरीर की अस्थि-धूरी अपने हृदय से,
कालजयी आलिंगन की
पृष्ठभूमि रचते हुए
समस्त परम्परा से
उन्मुक्त होकर
हमेशा के लिए
अनुषक्त हो जाना मुझसे।
</poem>
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मेरे माथे पर तुम्हें
सहस्त्र आकशगंगाओं का
विस्तार मिलेगा
महसूस करना तुम
होंठो पर हज़ारों ज्वार
अपने चुम्बन की शीतलता से
रोक देना उन्हें वहीं।
अनेक थपेड़ों के बाद बचा अखंडित मेरा शरीर
जब बिखर जाएगा तुम्हारे आलिंगन में
स्पर्श से मोक्ष देना उसे,
राम की ही भाँति
जैसे उन्होंने आहिल्या-पगधूरि
को दिया था।
तुम मल लेना
मेरे पार्थिव शरीर की अस्थि-धूरी अपने हृदय से,
कालजयी आलिंगन की
पृष्ठभूमि रचते हुए
समस्त परम्परा से
उन्मुक्त होकर
हमेशा के लिए
अनुषक्त हो जाना मुझसे।
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