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भर्तृहरि / कैलाश वाजपेयी

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<poem>
चिड़ियाँ बूढ़ी नहीं होतीं
मरखप जाती हैं जवानी में
ज़्यादा से ज़्यादा छह-सात दिन
तितली को मिलते हैं पंख
इन्हीं दिनों फूलों की चाकरी
फिर अप्रत्याशित
झपट्टा गौरेया का
एक ही कहानी है
खाने या खाए जाने की
तुम सहवास करो या आलिंगन राख का
भर्तृहरि! देही को फ़र्क नहीं पड़ता
और कोई दूसरी पृथ्वी भी नहीं है

भर्तृहरि ! यों ही मत खार खाओ शरीर पर
यही यन्त्र तुमको यहाँ तक लाया है
भर्तृहरि ! यह लो एक अदद दर्पण
चूर-चूर कर दो
प्रतिबिम्बन तब भी होगा ही होगा
भर्तृहरि ! अलग से बहाव नहीं कोई
असल में हम ख़ुद ही बहाव हैं
लगातार नष्ट होते अनश्वर
अभी-अभी भूख, पल भर तृप्ति, अभी खाद
भर्तृहरि ! हममें हर दिन कुछ मरता है
शेष को बचाए रखने के वास्ते
मौसम बदलता है भीतर
भर्तृहरि ! तुमने मरता नहीं देखा प्यासा कोई
वह पैर लेता है, आमादा
पीने को अपना ही ख़ून
भर्तृहरि ! तुमने मरुथल नहीं देखा
भर्तृहरि ! समय का मरुथल क्षितिजहीन है
और वहाँ पर ‘वहाँ’ जैसा कुछ भी नहीं
भर्तृहरि ! भाषा की भ्रान्ति समझो
सूर्य नहीं, हम उदय - अस्त हुआ करते हैं
युगपत् उगते मुरझते
भर्तृहरि! भाषा का पिछड़ापन समझो
जो भी हैं बन्धन में पशु है
निसर्गतः फ़र्क नहीं कोई
राजा और गोभी में
छाया देता है वृक्ष आँख मूँदकर
सुनता है, धड़ पर, चलते आरे की
अर्रर्र, किस भाषा में रोता है पेड़
भर्तृहरि ! तुमने उसकी सिसकी सुनी ?

भर्तृहरि ! तुम्हीं नहीं, सबको तलाश है
उस फूल की
जो भीतर की और खिलता है
भर्तृहरि ! लगने जब लगता है
मिला अभी मिला
आ रही है सुगन्ध
दृश्य बदल जाता है ।
</poem>
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