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बदलते दृष्टिकोण / लिली मित्रा

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चलते हैं सड़क पर
दो पैर,दो आँखें,एक मस्तिष्क,
और 'अनेक दृष्टिकोण'
एक ही व्यक्तित्व में
जो हर दिन एक ही जगह
को एक नए रूप में
दिखाते हैं,
जिस दिन चलो
उलझनों के साथ
उस दिन,
धाँसी सड़कें जूझती दिखती हैं
उनपर फेंके गए मलबे को
पाटने में,
हरे पेड़ से भी
दिखे झाँकता कोई सूखा दरख़्त।
बिजली के तार लगते हैं जैसे-
आसमान पर बिखरा जंजाल।
यहाँ तक कि
ठीक से काम कर रहीं
लाल-बत्तियों के बावजूद
ट्रैफ़िक लगता है
तितर-बितर।
कभी चले जो
निर्विकार भाव संग
तो दिखता है
उन्हीं पथ पर कितना कुछ
एक साथ चलता हुआ,
और सब कुछ
अपनी अलमस्त धुन में
बिना किसी अवरोध के
बेरोक-टोक
गुज़रता हुआ।
हर उबड़-खाबड़ को
चुनौती मान
टापकर आगे बढ़ता हुआ
चीखते बिलावजह हॉर्न
अनसुना करता,
बस चलता हुआ
बढ़ता हुआ
टापता हुआ,सम्भलता हुआ
बिना झुँझलाए,
बिना खिसियाए,
दो आँखें बनाती चलें
एक ही बिन्दु पर
दृष्टि का एक नया कोण ।
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