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|रचनाकार=शहनाज़ मुन्नी
|अनुवादक=प्रांजल धर
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<poem>
जैसे पानी और मिट्टी कीचड़ में रहते हैं गलबहियाँ डालकर,
सगोत्रता के एक सन्तुलित अनुपात के साथ,
बोलने में भी एक चुप्पी हुआ करती है,
कहे गए शब्दों में एक मौन होता है

सुनो, एक सफ़ेद कोरा काग़ज़ भी कुछ कहना चाहता है
पत्थर से प्रेम करने की व्यर्थता के साथ,
एक नटखट छाया गलियों में घूमती है,

घूमती है वह छाया अलग-अलग रास्तों और रंगों में,
रात भर घूमती है वह छाया और पेड़ों की जड़ों तक जाती है

और हमारी नींद से वंचित असन्तुष्ट चुम्बन
एक गहरी सांस लेते हैं,

अपनी आँखों को वह ताक़त तो दो
जो देख सकें अन्धेरे में भी ।

'''मूल बांगला से अनुवाद : प्रांजल धर'''
</poem>
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