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|रचनाकार=रवि सिन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
ख़याल कौंध गया है कोई अँधेरे में
तड़प उठी है कहीं रौशनी अँधेरे में
अज़ल<ref>अनादि ( eternity, beginning of the universe)</ref> से आज तलक जुम्बिश-ए-ख़ला<ref>शून्य की थरथराहट (trembling of the vacuum)</ref> शब-ताब<ref>रात रौशन करने वाला, जुगनू ( one who lights the night, fireflies)</ref>
भटक रही है कहीं रौशनी अँधेरे में
रगों के जाल में उलझी हुई रवानी से
उभर रही है ये कैसी ख़ुदी अँधेरे में
जुनूँ ने अक़्ल की आँखों को ढाँप रक्खा था
के देखने की यही शर्त्त थी अँधेरे में
मनाये सोग कोई आख़िरी चराग़ का क्यूँ
बड़े सुकून की है ज़िन्दगी अँधेरे में
करे हो रक़्स<ref>नृत्य (dance)</ref> तमाशे की रौशनी में ख़ूब
जो दीदावर<ref>दृष्टि-सम्पन्न (one who can see and appreciate)</ref> हो तो बैठो कभी अँधेरे में
पड़े हैं कब से ज़मींदोज़<ref>भूगर्भ में (underground)</ref> तुख़्म-ए-मुस्तक़बिल<ref>भविष्य के बीज (seeds of the future time)</ref>
उगेगी सोच नयी अब इसी अँधेरे में
</poem>
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ख़याल कौंध गया है कोई अँधेरे में
तड़प उठी है कहीं रौशनी अँधेरे में
अज़ल<ref>अनादि ( eternity, beginning of the universe)</ref> से आज तलक जुम्बिश-ए-ख़ला<ref>शून्य की थरथराहट (trembling of the vacuum)</ref> शब-ताब<ref>रात रौशन करने वाला, जुगनू ( one who lights the night, fireflies)</ref>
भटक रही है कहीं रौशनी अँधेरे में
रगों के जाल में उलझी हुई रवानी से
उभर रही है ये कैसी ख़ुदी अँधेरे में
जुनूँ ने अक़्ल की आँखों को ढाँप रक्खा था
के देखने की यही शर्त्त थी अँधेरे में
मनाये सोग कोई आख़िरी चराग़ का क्यूँ
बड़े सुकून की है ज़िन्दगी अँधेरे में
करे हो रक़्स<ref>नृत्य (dance)</ref> तमाशे की रौशनी में ख़ूब
जो दीदावर<ref>दृष्टि-सम्पन्न (one who can see and appreciate)</ref> हो तो बैठो कभी अँधेरे में
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उगेगी सोच नयी अब इसी अँधेरे में
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