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वैयक्तिक क्षण / कैलाश वाजपेयी

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|संग्रह=देहांत से हटकर / कैलाश वाजपेयी
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<poem>
विद्युत की तरल धार
जैसे बहने लगे भीतर शिराओं में
और सारी कालिमा
चंदन का फूल बन महक उठे
अपरिचित लगने लगे
पीली उदासी
और हर चाह जैसे
उपलब्धि बनने को मचल उठे!
होंठों से उठे एक लय
केका पंखी-
और छा जाए पूरे अंतराल में

तेरा दुलार
ओ मनः संगिनी !
ठंडा ठहराव है
निरवधि काल में
</poem>