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Kavita Kosh से
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लहरों से
टकराने की
कहकर बातें
एक उम्र वे
तट पर ही बस
खड़े रहे।
बँधे डोर से
सुविधाओं की
रोज चले
जितने भी थे
सगे सहोदर
सभी छले-
बोलो इनसे
मन की बातें
कौन कहे !
जिनके अधरों-
पर बरसों से
खून लगा
लहू में जिनके
फाग खेलती
रही दगा
उनका दंश,
जहर कहाँ तक
कोई सहे ।
-0-(7/8/92- सवेरा संकेत 8 नवम्बर 92,विवरण पत्रिका-विशाखापट्टनम् नव-94)
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