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<poem>
आदमी में आदमीयत की कमी होने लगी
मौत से भी आज बदतर ज़िंदगी होने लगी

जाल ख़ुद ही था बनाया क़ैद ख़ुद उसमें हुए
फिर बताओ अब तुम्हें क्यों बेबसी होने लगी

याद को अब याद करके याद भी धुँधला रही
लग रहा तुमसे मिले जैसे सदी होने लगी

चाँद, सूरज थे बने सबके लिये इक से यहाँ
रौशनी फिर क्यों बपौती महलों की होने लगी

बेच डाले हैं बज़ारों में सभी एहसास अब
आज आँखों में यहाँ झूठी नमी होने लगी

कब हवा का मोल जाना मुफ़्त थी इफ़रात थी
बोतलों में बंद है अब क़ीमती होने लगी

आज आँसू बह रहे ‘गरिमा’ क़लम की नोंक से
घाव से रिसते लहू से शायरी होने लगी
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