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परदे / गरिमा सक्सेना

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ग़ौर करो तो सुन पाओगे
परदे भी क्या कुछ कहते हैं

खिड़की से ये टुक-टुक देखें
नभ में उड़तीं कई पतंगे
अक्सर नीदों में आ जाते
सपने इनको रंग-बिरंगे
लेकिन इनको नहीं इजाजत
खुली हवा में लहराने की
बस छल्लों से बँधे-बँधे ही
ये परदे रोया करते हैं

घर के भीतर की सब बातें
राज़ बनाकर रखते परदे
धूप, हवा, बारिश की बूँदें
बुरी नज़र भी सहते परदे
सन्नाटों में मकड़ी आकर
जाले यादों के बुन जाती
अवसादों की धूल हृदय पर
फिर भी ये हँसते रहते हैं

इन पर बने डिज़ाइन सुंदर
चमकीले कुछ फूल सुनहरे
परदे ढाँपें दर-दीवारें
और छिपाते दागी चेहरे
इन परदों ने लाँघी है कब
मर्यादा की लक्ष्मण रेखा
आँख देखतीं, कान सुन रहे
अधरों पर ताले रखते हैं
</poem>
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