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<poem>
ये बदलाव बहुत तकलीफ़ देते हैं
कि अपने दरवाजे़ से
अपने ही नाम की तख़्ती उतारते हैं वे

अपनी पतीली उठाते हैं और चल देते हैं
उसे परदेश में चढ़ाते हैं दूसरे चूल्हे पे

प्रस्थान का प्रचार करने वाला
ये कैसा फ़र्नीचर है कि लोग
यात्रा पर चल देते हैं
खुलने और बन्द होने वाली कुर्सियाँ लेकर

घर की याद करना और कै करना चाहते जलपोत
अधिकृत उपकरण ले जाते हैं और
उन मालिकों को भी जिन्हें हक़ नहीं
इस तट से उस किनारे पर

फ़िलवक़्त दोनों किनारों पर
खुलने और बन्द होने वाली कुर्सियाँ हैं
— ये बदलाव बहुत तकलीफ़ देते हैं !

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : शुचि मिश्रा'''
</poem>
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