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|रचनाकार=रामकुमार कृषक
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
लिफ़्ट से
ऊपर उठे हम जा रहे हैं,
भा रहे हैं
अब कहीं ज़्यादा तरीके
सभ्यता के !
एक बेआवाज़
लम्बोदर गुफ़ा का रास्ता,
और यंत्रित वह क़िला
जिससे हमारा वास्ता;
दौड़कर घुसना
खड़े रहना अपंगों की तरह,
संग दकियानूस
कितने ही विचारों में जिरह;
कूद फिर चढ़ना
हवाई कुर्सियों पर पहुँच ऊपर,
और ख़ुद को थूक देना
खिड़कियों से जन्मभू पर;
पा रहे हैं अब
कहीं ज़्यादा सलीके
सभ्यता के !
</poem>
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लिफ़्ट से
ऊपर उठे हम जा रहे हैं,
भा रहे हैं
अब कहीं ज़्यादा तरीके
सभ्यता के !
एक बेआवाज़
लम्बोदर गुफ़ा का रास्ता,
और यंत्रित वह क़िला
जिससे हमारा वास्ता;
दौड़कर घुसना
खड़े रहना अपंगों की तरह,
संग दकियानूस
कितने ही विचारों में जिरह;
कूद फिर चढ़ना
हवाई कुर्सियों पर पहुँच ऊपर,
और ख़ुद को थूक देना
खिड़कियों से जन्मभू पर;
पा रहे हैं अब
कहीं ज़्यादा सलीके
सभ्यता के !
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