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|संग्रह=सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे / रामकुमार कृषक
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<poem>
हम प्रतीक्षारत
फटे आकाश पहले
सूई-धागा हाथ में है
थेगली के वास्ते !

खु़र्दबीनों से
समय के
ख़ास पल को खोजते हैं
टाँग रक्खे हैं
कलेण्डर और घड़ियाँ,

दूरियों में
फैलने की
इस तरह चिन्ता हमें है
पीठ पर
बैसाखियाँ हैं
हाथ छड़ियाँ,

हम प्रतीक्षारत
चले तो क़ाफिला यह
कुर्सियाँ बैठी हैं पहरे पर
निरापद रास्ते !

6-6-1976
</poem>
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