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|रचनाकार=दऊर ज़नतारिया
|अनुवादक=अनिल जनविजय
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<poem>
गाँव के ऊपर छाई है ये रात बेहद काली
चारों ओर फैला है, देखो, बस, मौन ही मौन
दूर भौंक रहे हैं कुत्ते, पास झींगुरों की आली —
सब कुछ लगे पराया, प्रिय हैं तारे नागदौन

आलस छाया है मुझपे, आत्मा हलकी-फुलकी
बीहड़ देह छोड़के रुह मेरी कहाँ भागना चाहे
यदि सब धोखा है तो किस लालसा की झलकी
होंठ मेरे ये अनचाहे ही क्या गाएँ - फुसफुसाएँ ?

रुह मेरी तू जब उड़ेगी वहाँ आकाशगंगा में दूर
मिलेंगे वहाँ तुझे साये कई नज़दीकी लोगों के
इससे पहले कि तू होगी इस दुनिया में मशहूर

ये दुनिया है जहाँ रहकर भी लोग भुला दिए जाएँ,—
जहाँ से मेरे दादाजी ने भी कहीं जाना नही चाहा
जो जानते थे कि भटकने के बाद कैसे लौट आएँ

'''रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय'''

'''लीजिए, अब यही कविता रूसी भाषा में पढ़िए'''
Даур Зантария
НОЧЬ

Ночь над деревней беспредельна, глубока.
Повсюду тишина — в объеме целокупном.
Что дальний лай собак, что ближний звон сверчка —
Всё стало чуждо, и роднее звездный купол.

Так телом я ленив и так душа легка!
Куда спешит душа из оболочки грубой?
А если всё — обман, зачем тогда тоска,
И что это за речь невольно шепчут губы?

Душа, ты полетишь по Млечному Пути,
Где множество родных теней обнять удастся
Пред тем, как и тебе придет пора врасти

В тот мир, где суждено забыться и остаться, —
Откуда и мой дед не захотел уйти,
Умевший из любых скитаний возвращаться.
</poem>
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