भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
वनचिल्ली के पेड़ के नीचे बैठा हुआ हूँ । कोई मेरी
बाट नहीं जोहता, कोई मुझे याद नहीं करता ।दिन छुपने जा रहा है, और मैं हलकी ठिठुरन से
भरा हूँ ।
कोई लड़ाई नहीं चल रही, मैं बेघर भी नहीं हूँ
वनचिल्ली के पेड़ के नीचे बैठा हुआ हूँ, जैसे
मुझसे पहले भी बैठते थे लोग
अब नदी नहीं बहती, अब समय नहीं रिसता ।
चालीस बरस का हो गया हूँ, और मैं यह बात समझता हूँ ...
तभी तो ख़ुद से कहता हूँ : ये साल बीत जाने दो —
अभी दूसरों को बोलने दो, 
मैं, भला, क्या जानूँ ? मैं बैठा हूँ यहाँ
वनचिल्ली के पेड़ के नीचे ।
И так я говорю: пускай года пройдут —
Другие выразить обязаны,
 
О чем я ведал, сидя тут
Под вязами.
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits