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|रचनाकार= बैर्तोल्त ब्रेष्त
|अनुवादक=शुचि मिश्रा
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<Poem>
फलदार पेड़ों की सिंचाई पूरम्पूर
करते हुए मैं थकान से चूर
तब खुले उस छोटे से
पादप-गृह में किया प्रवेश
दुर्लभ फूलों के अवशेष
थे शेष

कड़क तिरपाल की छाँह में
तिरपाल, टीन और लकड़ी की बागुड़ से
टिका हुआ था सारा लब्बो-लुवाब

रस्सी के बल
थामे हुए थे पीले मुरझाए डण्ठल
जिनसे दीखता था अब भी
अतीत-व्यतीत का रक्षण
और निगहबानी के प्रमाण

डोलती है छत तिरपाल की
छितराई छाँह सदाबहार वृक्षों की
जो कि निर्भर है बरसात पर

आवश्यकता नहीं है उन्हें बागवानी की
और सदैव की भाँति
नाज़ुक और सुन्दर पौधे जीवित नहीं !

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : शुचि मिश्रा'''
</Poem>
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