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कोई रुकता नहीं / अशोक शाह

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एक उम्मीद है
अनिश्चित
होना कुछ बाकी है

कोई रुकता नहीं एक पल भी
क्या कुछ खोया जा रहा
सबका ?

यकीनन पता मुझको नहीं
यकीन यही भी दुरुस्त
मालूम उन्हें भी नहीं

इसी गफ़लत से उपजी उम्मीद में
गाड़ा है एक ख़ेमा अपना भी
दरिया के पानी का एक लोटा मेरा भी

इतनी-सी इल्म है मेरी ज़िन्दगी
मील के पत्थर ही मंजिल हुए
जिनसे होकर बार-बार
गुजरता रहता हूँ
-0-

</poem>