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हम वही तो नहीं / अशोक शाह

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जलता है हर साल रावण
अब तक मरा नहीं

बारी है अब अपनी
जला के खुद को देखते हैं
कहीं हमीं
वही रावण तो नहीं

राज-लालसा खातिर
विभीषण बन बैठा हो
हमारी तृष्णा की भीतरी परतों में
-0-

</poem>