भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुकीर्थ रानी |अनुवादक=सुधा तिवार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुकीर्थ रानी
|अनुवादक=सुधा तिवारी
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
बेशुमार झाड़ियों से घिरे एक पहाड़
से बहती है एक नदी,
दरख़्तों की रसभरी डालियाँ झुकती हैं
इसके किनारों पर
छूते हुए पानी का तल ।
अदरक के स्वाद पगे फूल
बिखेरते हैं अपने बीज
चटकाकर अपनी नाजुक खाल
पत्थर के कोटर से छलकता है पानी
और चोटी के कगार से
बह उठता है झरना ।
शिकार को निपटा चुका एक बाघ
खून लगे मुँह को तर कर रहा है
तेज़ बहती जलधार में ।
नीचे उतरते ही
किसी ज्वालामुखी के खुले मुँह से
सुर्ख़ राख बिखरती है ।
घड़ी की दिशा में घूमता एक भँवर
आन्दोलित किए है धरती को ।
रात की तरावट में डूबती है
दिन की गर्मी ।
आख़िर में प्रकृति तब्दील हो जाती है
मेरी स्थिर पड़ी देह में ।
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधा तिवारी'''
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=सुकीर्थ रानी
|अनुवादक=सुधा तिवारी
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
बेशुमार झाड़ियों से घिरे एक पहाड़
से बहती है एक नदी,
दरख़्तों की रसभरी डालियाँ झुकती हैं
इसके किनारों पर
छूते हुए पानी का तल ।
अदरक के स्वाद पगे फूल
बिखेरते हैं अपने बीज
चटकाकर अपनी नाजुक खाल
पत्थर के कोटर से छलकता है पानी
और चोटी के कगार से
बह उठता है झरना ।
शिकार को निपटा चुका एक बाघ
खून लगे मुँह को तर कर रहा है
तेज़ बहती जलधार में ।
नीचे उतरते ही
किसी ज्वालामुखी के खुले मुँह से
सुर्ख़ राख बिखरती है ।
घड़ी की दिशा में घूमता एक भँवर
आन्दोलित किए है धरती को ।
रात की तरावट में डूबती है
दिन की गर्मी ।
आख़िर में प्रकृति तब्दील हो जाती है
मेरी स्थिर पड़ी देह में ।
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधा तिवारी'''
</poem>