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|रचनाकार=प्रमोद शर्मा 'असर'
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<poem>
कोई होगा ख़सारा लग रहा है ।
वो कुछ दिन से ख़फ़ा सा लग रहा है ।।

किसी की भूख मिटती ही नहीं और,
किसी को सब तमाशा लग रहा है ।

हुरुफ़ तो ख़त के सारे मिट गए पर,
ये ख़ुशबू से तुम्हारा लग रहा है ।

परों को तोलते हैं रोज़ ताइर,
मुझे अब डर ख़ुदारा लग रहा है ।

नहीं सीखी न तूने हेरा फेरी,
तेरा मुश्किल गुज़ारा लग रहा है ।

अयादत को तेरा ये घर पे आना,
न जाने क्यों मुदावा लग रहा है।

ग़ज़ल उस पर कहूँ कैसे 'असर' मैं ?
ग़ज़ल जो ख़ुद सरापा लग रहा है ।
</poem>