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|रचनाकार=बरीस पास्तेरनाक
|अनुवादक=अनिल जनविजय
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<poem>
शोर बन्द हो गया । मंच पर मैं हाज़िर हूँ,
दरवाज़े के पास खड़ा हो सोच रहा हूँ,
दूरागत प्रतिध्च्वनियाँ सुनता,
मेरे जीवन में जो कुछ घटनेवाला है ।

रात अन्धेरी मेरी ओर चली आती है,
शत-शत नाट्य-घरों में होती;
परम पिता, यदि सम्भव हो तो,
अबकी बार ज़हर का प्याला पड़े न पीना ।

दुर्निवार्य उद्देश्य तुम्हारा मान्य मुझे है,
मैं अपनी भूमिका अदा करने को तत्पर,
किन्तु यह नया नाटक, मैं नव अभिनेता हूँ,
एक बार मुझको अपना होकर जीने दो ।

आह ! जानता हूँ अंकों का क्रम निश्चित है,
नियत अन्त से बचना सम्भव कभी नहीं है,
मैं एकाकी हूँ, पाखण्डी-दल रचता है ताना-बाना ।
(फँसना होगा !)
*अपना जीवन जीना ऐसा सरल नहीं है
जैसे खेत पार कर जाना !

* अन्तिम वाक्य एक रूसी कहावत है।

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन'''
</poem>
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