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<poem>
ऊपर से ख़ुशनुमा दिखने वाली
एक मक्कार साज़िश के तहत
उन्हों ने पकड़ा दी हमारे हाथों में क़लम
औऱ हमें कुर्सियों से बाँधकर
वह सब कुछ लिखते रहने को कहा
जिस का अर्थ जानना
हमारे लिए जुर्म है

उन्होंने हमें
मशीन के अनगिनत चक्कों के साथ
जोड़ दिया
और चाहा कि हम
चक्कों से माल उतारते रहें
बिना यह पूछे कि
माल आता कहाँ से है

उन्हों ने हमें फौजी लिबास
पहना दिया
और हमारे हाथों में
चमचमाती हुई राइफ़लें थमा दीं
बिना यह बताए
कि हमारा असली दुश्मन कौन है
और हमें
किसके विरुद्ध लड़ना है

उन्होंने हमें सरेआम
बाज़ार की मण्डी में ला खड़ा किया
और ऐसा
जैसा रण्डियों का भी नहीं होता
मोल-भाव करने लगे

और तभी
सामूहिक अपमान के
उस सबसे ज़हरीले क्षण में
वे सभी कपड़े
जो शराफ़त ढँकने के नाम पर
उन्होंने हमें दिए थे
उतारकर
हमें अपने असली लिबास में
आ जाना पड़ा
और उन की आँखों में
उँगलियाँ घोंपकर
बताना पड़ा
कि हम वस्तु नहीं हैं ।
</poem>
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