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|रचनाकार=महेंद्र नेह
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}}
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<poem>
घाटियों से उठी
जंगलों से लड़ी
ऊँचे पर्वत से जाकर टकरा गई !
हवा मौसम को फिर से गरमा गई !!
दृष्टि पथ पर जमी, धुन्ध ही धुन्ध थी
सृष्टि की चेतना, कुन्द ही कुन्द थी
सागरों से उठी
बादलों से लड़ी
नीले अम्बर से जाकर टकरा गई !
हर तरफ़ दासता के कुएँ, खाइयाँ
हर तरफ़ क्रूरता से घिरी वादियाँ
बस्तियों से उठी
कण्टकों से लड़ी
काली सत्ता से जाकर टकरा गई ?
</poem>
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घाटियों से उठी
जंगलों से लड़ी
ऊँचे पर्वत से जाकर टकरा गई !
हवा मौसम को फिर से गरमा गई !!
दृष्टि पथ पर जमी, धुन्ध ही धुन्ध थी
सृष्टि की चेतना, कुन्द ही कुन्द थी
सागरों से उठी
बादलों से लड़ी
नीले अम्बर से जाकर टकरा गई !
हर तरफ़ दासता के कुएँ, खाइयाँ
हर तरफ़ क्रूरता से घिरी वादियाँ
बस्तियों से उठी
कण्टकों से लड़ी
काली सत्ता से जाकर टकरा गई ?
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