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{{KKRachna
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
कुछ लोग
प्रजातंत्र मर गया कहकर
उदास हैं
जैसे ज़िन्दा था कभी
वह बेचारा
लोगों को तो
उदास होने का कोई
बहाना चाहिए
जैसे उस दिन कह दिया
हम लोगों ने 'छोटे' से
कि आज संक्रान्ति है
तुम्हें नहाना चाहिए
और वे उदास हो गए
बेचारे
दिल्लगी करने का अपना
स्वभाव तक भूल गए
और हम लोग जिन्हें
दिल्लगी कभी-कभी सूझती है
उन्हें उदास देखकर
अपनी सफलता पर फूल गए !
30-3-1976
</poem>
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कुछ लोग
प्रजातंत्र मर गया कहकर
उदास हैं
जैसे ज़िन्दा था कभी
वह बेचारा
लोगों को तो
उदास होने का कोई
बहाना चाहिए
जैसे उस दिन कह दिया
हम लोगों ने 'छोटे' से
कि आज संक्रान्ति है
तुम्हें नहाना चाहिए
और वे उदास हो गए
बेचारे
दिल्लगी करने का अपना
स्वभाव तक भूल गए
और हम लोग जिन्हें
दिल्लगी कभी-कभी सूझती है
उन्हें उदास देखकर
अपनी सफलता पर फूल गए !
30-3-1976
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