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गंगा-तट / जगदीश गुप्त

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'''ब्रजभाषा में दो छन्द'''

'''एक'''

रेनुका नेक हूँ अंग छुए,
सब जात अनंग के ताप निवारे
दूध की धार तरंग-तरंगित,
फेन के संग उमंग पसारे
कौन कहे महिमा कलिकाल मैं,
काल हूँ काँपत नाम उचारे
भागीरथी हम दोस भरे,
पै भरोस यहै हैं, परोस तिहारे ।

'''दो'''

देवनदी उतरी नभ-गंग ह्वै,
तारक- रासि प्रसून सँवारे
छूटि परे सब जूट-जटान के,
पाँउ जबै सिव के सिर धारे
भूमि पै पावन धार बही,
जमुना सौं मिली, जुग बाहु पसारे
भागीरथी हम दोस भरे,
पै भरोस यहै, हैं परोस तिहारे ।
</poem>
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