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|रचनाकार=निकअलाई निक्रासफ़
|अनुवादक=हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
बीत चला है पतझड़, चिड़ियाँ चली गई हैं
गर्म प्रदेशों को; वन की डालें नंगी हैं;
पड़ा हुआ मैदान सपाट; खड़ी है अब भी
एक खेत में फ़सल, अकेले एक खेत में।

इसे देखकर मैं उदास होता,
विचार में पड़ जाता हूँ —
निश्चय बालें इसकी आपस में काना-फूसी करती हैं :
"यह पतझड़ की हवा, कि इसके कर्कश स्वर से कान फट गए ।"
"ऊब गई मैं बार-बार धरती के ऊपर शीश झुकाते
और गिराते और मिलाते मिट्टी में मोती से दाने ।"
"ये घोड़े जंगली हमें भारी टापों से खूँद-कुचलकर चल देते हैं !"
"ये खरगोश चलाते अपने पंजे हम पर !"
"होश उड़ानेवाले सर्द हवा के झटके !"
"जो भी पक्षी आता अपनी चोंच मारकर दाने चार गिरा लेता है ।"
"भला आदमी कहाँ रह गया ?"
"बात हुई क्या ?"
"निकली सबसे बुरी फ़सल क्या इसी खेत की ?"

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंशराय बच्चन'''

'''और अब यह कविता मूल रूसी भाषा में पढ़ें'''
Николай Некрасов


1851 г.
</poem
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