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प्रेम-संगीत / सुषमा गुप्ता

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धूप की आँखें अधखुली हैं
मैंने आँखें पूरी मूँद रखी हैं
देह के अलग-अलग हिस्सों पर
धूप टप्पा खा रही है
सर्दी की धूप यूँ खेलती है
तो सौंधा सेंक लगता है
 
दूर कहीं से बाँसुरी की
मधुर आवाज़ आ रही है
मन ने गर्दन उचकाई
और कान, आँख, ज़ेहन से कहा -
"यह कितना सुंदर सुख है ना!"
 
मैंने मुस्कुराते हुए
सिर के नीचे हाथ रखा
महसूसा
सिर तुम्हारे सीने पर रखा है
 
कान आँख ज़ेहन
सबकी ताल में सुर मिलाकर
ज़ुबाँ ने भी इस बार
मन की हाँ में हाँ मिलाई और कहा
 
"हाँ यह सचमुच बेहद सुंदर सुख है।"
 
-0-
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