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हरियाली का आवरण ओढ़कर,
धरती देती है सन्देषसन्देश, सुख षान्ति शान्ति का ।
और
प्रकृति को दुल्हन सा सजाना,
उसको निहारती ष्वेतश्वेत,
बर्फ से ढकी पहाडियाँ ।
बैठी है प्रकृति वसन्त के,
आगमन पर,
अपने प्रियत प्रियतम को लुभाने के लिये।
नदियॉं गाढ़ गदेर,े
छलकाते हुये ।
विभाजन करते है उसके,
हिमालय सफेद आवरण को,
दिखती है कभी छिप जाती है ।
चीड़ के हरे-भरे पेड़ों की,
वसन्त को बहलाने के लिये ।
यह प्यारा सा सफर,
हर दिन गढ़ देष देश की धरती पर,बांझ बुरांष बुरांश के पेडों के,
आंचल को चीरता हुआ ।
प्रातः तथा संध्या की लालिमां ।
उगते सुख और ढलते दुःख,
की सन्देष सन्देश देती है ।
प्रातःकाल नवीन,
हमारा सफर ।
गढ देष देश की धरा पर,
हर पल नई उमंगों से भरा ।
हर उम्र के पड़ाव को भुला कर,