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मेरा भी तो मन करता है
 
मैं भी पढ़ने जाऊँ
 
अच्छे कपड़े पहन
 
पीठ पर बस्ता भी लटकाऊँ
 
क्यों अम्मा औरों के घर
 
झाडू-पोंछा करती है
 
बर्तन मलती, कपड़े धोती
 
पानी भी भरती है
 
अम्मा कहती रोज
 
`बीनकर कूड़ा-कचरा लाओ'
 
लेकिन मेरा मन कहता है
 
`अम्मा मुझे पढाओ'
 
कल्लन कल बोला-
 
बच्चू! मत देखो ऐसे सपने
 
दूर बहुत है चाँद
 
हाथ हैं छोटे-छोटे अपने
 
लेकिन मैंने सुना
 
हमारे लिए बहुत कुछ आता
 
हमें नहीं मिलता
 
रस्ते में कोई चट कर जाता
 
डौली कहती है
 
बच्चों की बहुत किताबें छपती
 
सजी- धजी दूकानों में
 
शीशे के भीतर रहतीं
 
मिल पातीं यदि हमें किताबें
 
सुन्दर चित्रों वाली
 
फिर तो अपनी भी यूँ ही
 
होती कुछ बात निराली।।
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